13वें गुणस्थान के अंत में शरीर के आत्मप्रदेश किंचित कम हो जाते हैं ,
क्योंकि 14वें गुणस्थान में तो शरीर-नामकर्म का उदय ही नहीं है ।
मुनि श्री सुधासागर जी
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गुणस्थान का तात्पर्य मोह और योग के माध्यम से जीव के परिणामों में होने वाले उतार चढ़ाव को कहते हैं। जीवों के परिणाम यद्यपि अनन्त हैं, परन्तु उनको चौदह श्रेणीयों में विभाजित किया गया है।
नाम कर्म का मतलब जिस के उदय से जीव देव,नारकी,तिर्यंच या मनुष्य कहलाता है, अथवा नाना प्रकार के शरीर की रचना करता है। अतः मुनि सुधासगर जी महाराज का कथन सत्य है कि 13 वें गुणस्थान के अंत में शरीर के आत्मप़देश किंचित कम हो जातें हैं, क्योंकि 14 वें गुणस्थान में शरीर नाम कर्म का उदय ही नहीं है।
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गुणस्थान का तात्पर्य मोह और योग के माध्यम से जीव के परिणामों में होने वाले उतार चढ़ाव को कहते हैं। जीवों के परिणाम यद्यपि अनन्त हैं, परन्तु उनको चौदह श्रेणीयों में विभाजित किया गया है।
नाम कर्म का मतलब जिस के उदय से जीव देव,नारकी,तिर्यंच या मनुष्य कहलाता है, अथवा नाना प्रकार के शरीर की रचना करता है। अतः मुनि सुधासगर जी महाराज का कथन सत्य है कि 13 वें गुणस्थान के अंत में शरीर के आत्मप़देश किंचित कम हो जातें हैं, क्योंकि 14 वें गुणस्थान में शरीर नाम कर्म का उदय ही नहीं है।