संवर / निर्जरा
संवर निर्जरा चारों गतियों में होती है ।
देव/नारकियों के सम्यग्दर्शन प्राप्ति के समय असंख्यात गुणी निर्जरा तथा संवर तो पहले से तीसरे गुणस्थान की कर्म प्रकृतियों की होती ही है ।
तिर्यंच (5 गुणस्थान) तथा मनुष्यों (5 गुणस्थान और आगे) के जीवन पर्यंत होती है ।
मुनि श्री सुधासागर जी
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संवर—आस्त्रव का निरोध करना कहलाता है। अथवा जिससे कर्म रुकें वह कर्मों का संवर है। यह भी दो प्रकार के होते हैं, भाव और द़व्य संवर।
निर्जरा—जिस प्रकार आम आदि फल पककर वृक्ष से पृथक हो जाता है उसी प्रकार आत्मा को भला बुरा फल देकर कर्मों का झड़ जाना निर्जरा है।
संवर निर्जरा चारों गतियों में होती है। अतः जो लिखा गया है वह कथन सत्य है।