साधु
साधु देखते हुये भी देखता नहीं, या उसमें कुछ और देख लेता है, जैसे कोई काम की वस्तु।
सुनते हुये भी सुनता नहीं, या और कुछ ही सुन लेता है। जैसे उसे “पागल” कहा, तो सुनेगा “पा”, “ग”, “ल”, मात्र तीन वर्ण। वर्णों से ही तो शास्त्रों की रचना होती है। गाली तो सुनेगा ही नहीं!
मुनि श्री सुधासागर जी
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साधु का तात्पर्य निर्ग्रंथ मुनि हैं,जो घर ग़हस्थी से सम्बंध, आरंभ, परिग़ह और शिष्य भावना का त्याग करके रत्नत्रय की आराधना करते हुए सम्यग्दर्शन,संयम जीवन जीतै हैं,वह अठाईस मूल गुण धारी होते हैं। मुनि श्री सुधासागर महाराज जी ने उदाहरण दिया गया है वह पूर्ण सत्य है, अतः जीवन में व़तधारी बनना आवश्यक है ताकि जीवन का कल्याण हो सकता है।