सुख / दु:ख
सुख भी पीड़ा/ दुःख/ तृष्णा देता है। लगातार मिलने पर Bore होने लगते हैं, न मिलने पर दुःखी। सो सुख दुःख बराबर हुए न !
इंद्रिय सुख वासना है सुखकार की। पर इससे सुरक्षा की चिंता/विकल्प, सुरक्षा का खर्चा भी।
सुख बाह्य है, अंतरंग सुख ब्रम्ह में आचरण/ ब्रम्हचर्य से ही प्राप्त होता है।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
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मुनि श्री प़णम्यसागर महाराज जी ने सुख एवं दुख को परिभाषित किया गया है वह पूर्ण सत्य है। अतः जीवन के कल्याण के लिए सुख को अभिमान नहीं करना चाहिए बल्कि दुख से दुखी नहीं होना चाहिए। अतः सुख दुःख में कर्म सिद्धांत पर श्रद्वान करना परम आवश्यक है।