प्रवृत्ति तो 1 से 6 गुणस्थानों में है, तो हिंसा ?
पहले गुणस्थान वाला भी जब प्रवृत्ति में सावधानी बरतेगा, तब हिंसा का दोष नहीं लगेगा। चूँकि व्रतियों को यह सावधानी हर समय याद रहती है, सो कभी भी दोष नहीं लगता।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
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जैन धर्म में भगवान् श्री महावीर स्वामी जी ने उपदेश दिया था कि,यह धर्म अहिंसा प़धान है।
हिंसा का मतलब प़माद के वशीभूत होकर जीवों के प्राणों का वियोग करना या पीड़ा पहुंचाना होता है। यह भी दो प़कार की है, द़व्य एवं भाव हिंसा।
मुनि महाराज ने जो उदाहरण दिया गया है वह पूर्ण सत्य है ।
अतः मनुष्य को दोनों हिंसा से बचना चाहिए ताकि जीवन का कल्याण हो सकता है।
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जैन धर्म में भगवान् श्री महावीर स्वामी जी ने उपदेश दिया था कि,यह धर्म अहिंसा प़धान है।
हिंसा का मतलब प़माद के वशीभूत होकर जीवों के प्राणों का वियोग करना या पीड़ा पहुंचाना होता है। यह भी दो प़कार की है, द़व्य एवं भाव हिंसा।
मुनि महाराज ने जो उदाहरण दिया गया है वह पूर्ण सत्य है ।
अतः मनुष्य को दोनों हिंसा से बचना चाहिए ताकि जीवन का कल्याण हो सकता है।