अगुरुलघु –
1. सामान्य गुण – जीव तथा अजीव में, ख़ुद के गुण कम न हों, अन्य के गुण आयें नहीं।
2. गोत्र कर्म के क्षय होने पर सिद्धों में छोटे/बड़े का अभाव।
3. शुद्ध द्रव्यों में परिणमन का हेतु।
पं.रतनलाल बैनाड़ा जी
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अगुरुलघु का तात्पर्य जिस गुण के निमित्त द़व्य का द़व्यपना सदा बना रहे, अर्थात द़व्य का कोई गुण न तो अन्य द़व्य रुप है। अतः उपरोक्त कथन सत्य है कि 1 सामान्य गुण जीव तथा अजीव में खुद के गुण कम न हों, अन्य के गुण आवे नहीं।2 गोत्र कर्म के क्षय होने पर सिद्धों में छोटे बड़े का अभाव।3 शुद्ध द़व्यो में परिणमन का हेतु होता है।
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अगुरुलघु का तात्पर्य जिस गुण के निमित्त द़व्य का द़व्यपना सदा बना रहे, अर्थात द़व्य का कोई गुण न तो अन्य द़व्य रुप है। अतः उपरोक्त कथन सत्य है कि 1 सामान्य गुण जीव तथा अजीव में खुद के गुण कम न हों, अन्य के गुण आवे नहीं।2 गोत्र कर्म के क्षय होने पर सिद्धों में छोटे बड़े का अभाव।3 शुद्ध द़व्यो में परिणमन का हेतु होता है।