हिंसा

अविरत सम्यग्दृष्टि 5 स्थावर जीवों की हिंसा करता है ।
जबकि ऊपरी गुणस्थान वालों से हिंसा हो जाती है, वे करते नहीं हैं ।

मुनि श्री सुधासागर जी

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  1. हिंसा का मतलब प़माद के वशीभूत जीव के प्राणों का वियोग करना या पीड़ा पहुंचाना होता है।यह दो प्रकार की होती है , द़व्य और भाव हिंसा। द़व्य हिंसा में मारना होता है जबकि भाव हिंसा में विचार करना होता है। अविरत का मतलब व़तों का धारण करना नहीं होता है। पांच स्थावर और त्रस यह छह प़कार के जीवों का ध्यान न करने से और पांच इन्द्रिय व मन करे विषयों से विरक्त न होने से अविरत होता है। पृथ्वी, अग्नि,जल, वायु और वनस्पति यह पांचों एक इन्दिय जीव होते हैं। अतः उपरोक्त कथन सत्य है कि अविरत सम्यग्द्वष्टि पांच स्थावर जीवों की हिंसा करता है, जबकि ऊपरी गुणस्थान वालों से हिंसा हो जाती है, लेकिन वे करते नहीं है।

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