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उत्तम आकिंचन्य

मैं और मेरापन/ पुराने विचारों को छोड़ना भी आकिंचन्य/ अपरिग्रह है।
शक्ति दो प्रकार की होती हैं… एक स्मरण-शक्ति जैसे पुराने विचार, दूसरी दर्शन-शक्ति यानी वर्तमान को देखना/ असलियत को देखना। व्यवहार में आकिंचन्य को अपरिग्रह भी कहते हैं।
परिग्रह वस्तु का नहीं, वस्तु के साथ जुड़ी आसक्ति है।
नौ ग्रहों से बड़ा दसवां परिग्रह होता है लेकिन जो निजग्रह में आ जाते हैं उन्हें ये ग्रह सताते नहीं।
अकेले होने को कहा है, निराश होने को नहीं। जिसने अपना फ़ोकस आत्मा पर कर लिया वह सुखी हो गया जैसे ठंडाई में बहुत सारी चीज मिलाई जाती हैं पर शक्कर कम या ज्यादा हो उस पर बहुत फ़ोकस होता है।
चार कषाय( क्रोध, मान, माया, लोभ) और पांच पाप (हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह) इनको छोड़ने का नाम भी आकिंचन्य है।
शांति पानी है तो कल्पना करें किसी ऊंचे पहाड़ पर हम चढ़ रहे हैं साथ में बहुत सारे सर्दी के कपड़े हैं जैसे-जैसे ऊपर चढ़ते जाएँगे एक-एक कपड़ा छोड़ते जाएँगे, आखिर में तो शरीर भी भारी लगने लगता है। सबसे संबंध छोड़ने पर ही शांति मिलती है। इसीलिए कहते हैं कि मोक्ष में शरीर की भी जरूरत नहीं।

आर्यिका श्री पूर्णमति माताजी

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One Response

  1. आर्यिका श्री पूर्णमती माता जी ने उत्तम आकिंचन्य को परिभाषित किया गया है वह पूर्ण सत्य है । सभी प्रकार का परिग्रह, मय शरीर के मेरा नहीं है। ममत्व के परित्याग होना परम आवश्यक है। इस प्रकार के अनासक्ति भाव उतपन्न होना आकिंचन्य है। अतः आत्मा के सिवाय किंचित मात्र भी मेरा नहीं है, ऐसी भावना रखना ही उत्तम आकिंचन्य है।

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