चक्रवर्ती का मान वृषभाचल पर्वत पर नाम लिखने की जगह न मिलने से खंडित नहीं हुआ था, वरना वैराग्य न हो जाता !
हाँ ! ज्ञान हुआ था,
पर चारित्र-मोहनीय का उदय बलवान चल रहा था, लोभ कषाय ने समझाया— सब चक्रवर्ती करते हैं, तू भी कर ले ।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
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चारित्र मोहनीय के उदय से जीव में असंयम भाव होता है, यानी जिस कर्म के उदय से जीव चारित्र को ग़हण नहीं कर पाता है,वह चारित्र मोहनीय कर्म कहलाता है।
उक्त कथन सत्य है कि चक्रवर्ती का मान वृषभाचल पर्वत पर नाम न लिखने की जगह न मिलने से खण्डित नहीं हुआ था,वरना वैराग्य न हो जाता बल्कि ज्ञान हुआ था। लेकिन चारित्र मोहनीय का उदय बलवान चल रहा था,तब लोभ कषाय ने समझाया था… सब चक्रवर्ती करते हैं तो तू भी कर ले। अतः इससे सुनिश्चित है कि ज्ञान होने पर वैराग्य के भाव होना आवश्यक नहीं है ।
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चारित्र मोहनीय के उदय से जीव में असंयम भाव होता है, यानी जिस कर्म के उदय से जीव चारित्र को ग़हण नहीं कर पाता है,वह चारित्र मोहनीय कर्म कहलाता है।
उक्त कथन सत्य है कि चक्रवर्ती का मान वृषभाचल पर्वत पर नाम न लिखने की जगह न मिलने से खण्डित नहीं हुआ था,वरना वैराग्य न हो जाता बल्कि ज्ञान हुआ था। लेकिन चारित्र मोहनीय का उदय बलवान चल रहा था,तब लोभ कषाय ने समझाया था… सब चक्रवर्ती करते हैं तो तू भी कर ले। अतः इससे सुनिश्चित है कि ज्ञान होने पर वैराग्य के भाव होना आवश्यक नहीं है ।