ज़िन्दगी
अच्छे ने अच्छा और
बुरे ने बुरा जाना मुझे,
क्योंकि जिसकी जितनी ज़रूरत थी,
उसने उतना ही पहचाना मुझे;
बैठ जाता हूँ
मिट्टी पे अकसर,
क्योंकि मुझे अपनी
औकात अच्छी लगती है;
मैंने समंदर से
सीखा है जीने का सलीका,
चुपचाप से बहना और
अपनी मौज़ में रहना;
सोचा था घर बना कर
बैठुंगा सुकून से,
पर घर की ज़रूरतों ने
मुसाफ़िर बना डाला मुझे;
कितने दूर निकल गए
रिश्तों को निभाते निभाते,
खुद को खो दिया हम ने
अपनों को पाते पाते;
खुश हूँ और सबको
खुश रखता हूँ,
लापरवाह हूँ फिर भी
सब की परवाह करता हूँ ।
(पारुल मेहता)
One Response
उपरोक्त कविताओं की भावना जिन्दगी जीने के लिए बहुत अच्छी लगती हैं। लेकिन जिन्दगी जीने के मकसदों का विचार किया जाना चाहिए, इसके साथ धर्म से जुड़ना चाहिए जिससे परमार्थ के लिए कुछ भी कर सकते हो।