आचार्य शिष्यों को संघ से बाहर नाराज़ होकर नहीं भेजते बल्कि प्रभावना व संघ फैलाने के लिये भेजते हैं।
उस समय आचार्य की दृष्टि तटस्थ होती है जैसे धर्मकांटे पर तौलने वाले की।
मुनि श्री सुधासागर जी
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तटस्थ का मतलब बिना किसी भेद भाव के रहना है। अतः आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज जी का कथन सत्य है कि वह अपने संघ के साधुओं से समान व्यवहार करते हैं। अतः हर मनुष्य को आचार्य सरीखी द्वष्टिकोण तटस्थ रहना परम आवश्यक है ताकि जीवन का कल्याण हो सकता है।
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तटस्थ का मतलब बिना किसी भेद भाव के रहना है। अतः आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज जी का कथन सत्य है कि वह अपने संघ के साधुओं से समान व्यवहार करते हैं। अतः हर मनुष्य को आचार्य सरीखी द्वष्टिकोण तटस्थ रहना परम आवश्यक है ताकि जीवन का कल्याण हो सकता है।