चारित्र = कर्म बंध की क्रियाओं को छोड़ना (श्रावकों को अशुभ, श्रवणों को शुभ भी ),
धर्म = जो जीव को इष्ट स्थान में धरता है ।
तत्वार्थसूत्र टीका – 9/2
तो धर्म में चारित्र के साथ साथ गुप्ति, समिति, अनुप्रेक्षा और परिषहजय भी आ जायेंगे (संवर के कारण) ।
चिंतन
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धर्म—सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और चारित्र ही है।
चारित्र—कर्मो की निवृति होना है।
संवर—आस्त्रव का निरोध करना कहलाता है अथवा जिसमें कर्म रूके या कर्मो का रुकना होता है।
अतः चारित्र में कर्मो की क़ियायो का छोडना होता है जो श्रावको को अशुभ और श्रवणो को शुभ भी होता है लेकिन धर्म में चारित्र के साथ गुप्ति, समिति, अनुप़ेक्षा और परिषहजय भी आ जाते हैं, जो संवर के कारण होता है।अतः धर्म को मानना ही उपयुक्त होगा।
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धर्म—सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और चारित्र ही है।
चारित्र—कर्मो की निवृति होना है।
संवर—आस्त्रव का निरोध करना कहलाता है अथवा जिसमें कर्म रूके या कर्मो का रुकना होता है।
अतः चारित्र में कर्मो की क़ियायो का छोडना होता है जो श्रावको को अशुभ और श्रवणो को शुभ भी होता है लेकिन धर्म में चारित्र के साथ गुप्ति, समिति, अनुप़ेक्षा और परिषहजय भी आ जाते हैं, जो संवर के कारण होता है।अतः धर्म को मानना ही उपयुक्त होगा।