धार्मिक कार्यों में दान भरी ज़ेब वाले ही करते हैं,
बिना ज़ेब (साधु) वालों की प्रेरणा/अशीर्वाद से,
खाली ज़ेब वाले तो खाली (ख़राब – ख़राब) बातें ही करते हैं ।
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जैन धर्म में दान का महत्वपूर्ण स्थान है।दान का मतलब परोपकार की भावना से अपनी वस्तु का अर्पण करना होता है।दान भी चार प्रकार है, आहार दान, औषधि दान, उपकरण या ज्ञान दान और अभय दान। अतः उक्त कथन सत्य है कि धार्मिक कार्यों में दान वे करते हैं, जिनके पास धन होता है। साधुओं के पास धन नहीं होता हैं लेकिन उनकी प्रेरणा और आशीर्वाद से ही धन का दान करते हैं। जीवन में दान की महत्ता सिर्फ साधु ही बता सकते हैं। जिसके पास धन नहीं होता हैं वह दान देने वालों की अनुमोदना करते हैं उनको भी उसका फल अवश्य मिलता है।
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जैन धर्म में दान का महत्वपूर्ण स्थान है।दान का मतलब परोपकार की भावना से अपनी वस्तु का अर्पण करना होता है।दान भी चार प्रकार है, आहार दान, औषधि दान, उपकरण या ज्ञान दान और अभय दान। अतः उक्त कथन सत्य है कि धार्मिक कार्यों में दान वे करते हैं, जिनके पास धन होता है। साधुओं के पास धन नहीं होता हैं लेकिन उनकी प्रेरणा और आशीर्वाद से ही धन का दान करते हैं। जीवन में दान की महत्ता सिर्फ साधु ही बता सकते हैं। जिसके पास धन नहीं होता हैं वह दान देने वालों की अनुमोदना करते हैं उनको भी उसका फल अवश्य मिलता है।