निज / पर

निज में रहे तो जिन बनोगे;
“पर” में रहे तो, जिन्न ।

मुनि श्री महासागर जी

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6 Responses

  1. उपरोक्त कथन सत्य है कि जो अपने आत्मा में लीन रहते हैं, वही जिन यानी परमात्मा बन सकते हैं। यदि जो पर में लीन रहते हैं,वह जिन्न यानी संसार में भटकते रहेंगे। अतः हर जीव को अपने वास्तविक स्वरूप की पहिचान करना आवश्यक है ताकि जीवन का कल्याण करने में समर्थ हो सकते हैं।

    1. “पर” पै रहोगे तो “पर” पै हावी भी रहोगे जैसे भूत/जिन्न चढ़ जाते हैं।
      2) अपने से दूर रहने वाले कितना भी पुण्य करें, देव भी बने तो भी हलके वाले ही बनेंगे जैसे जिन्न।

    1. सही तो “मैं” ही है लेकिन हावी होने के लिए “पै” प्रयोग हुआ सो पहले भी “पै” suit कर रहा था। दोनों के अर्थों में भी ज्यादा अंतर नहीं है।

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