पर-दृष्टि
दर्पण में छवि दुगनी दूरी पर बनती/दिखती है ।
दूसरे की दृष्टी से अपने आप को देखोगे तो बहुत दूरी से देखने के कारण सही नहीं देख पाओगे ।
फिर दूसरे के दर्पण में द्वेष/राग/हठग्राहिता/ईर्षा की धूल हो सकती है, अज्ञान का टेड़ापन हो सकता है ।
चिंतन
दर्पण में छवि दुगनी दूरी पर बनती/दिखती है ।
दूसरे की दृष्टी से अपने आप को देखोगे तो बहुत दूरी से देखने के कारण सही नहीं देख पाओगे ।
फिर दूसरे के दर्पण में द्वेष/राग/हठग्राहिता/ईर्षा की धूल हो सकती है, अज्ञान का टेड़ापन हो सकता है ।
चिंतन
2 Responses
जीवन में परदृष्टि के भाव नहीं होना चाहिए, यदि रखते हैं तो कभी कल्याण नहीं हो सकता है।
दूसरे की दृष्टि से देखने में द्वेष/राग/हठग़ाहता और ईर्षा की धूल रहती है और अज्ञान का टेड़ापन होता है।दर्पण भी परदृष्टि होती है।अतः उचित होगा कि स्वयं की अन्दर दृष्टि से देखना चाहिये तभी जीवन का उद्वार हो सकता है।
Very true.Isliye, best assessment ke liye, humein hamesha apne aap ko, swayam ki nazron se hi dekhna chahiye, aur wo bhi nishpaksh drishtikon se.