सराग-संयम, संयमा-संयम और आकाम-निर्जरा मन से होते हैं,
बाल तप शरीर से,
इनसे ही पुण्याश्रव होता है/देवायु का बंध होता है ।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
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आश्रव का तात्पर्य पुण्य पाप रुप कर्मों के आगमन को कहते हैं। अतः उपरोक्त कथन सत्य है कि पुण्याश्रव में सराग संयम,संयमा संयम और अकाम निर्जरा मन से होते हैं, जबकि बल तप शरीर से होता है। अतः इनसे भी पुण्याआश्रव होता है, जिससे देवायु का बंध होता है। अतः जीवन में पुण्य के कार्य करते रहना चाहिए एवं पापों का त्यागने का भाव होना चाहिए ताकि जीवन में यह कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है।
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आश्रव का तात्पर्य पुण्य पाप रुप कर्मों के आगमन को कहते हैं। अतः उपरोक्त कथन सत्य है कि पुण्याश्रव में सराग संयम,संयमा संयम और अकाम निर्जरा मन से होते हैं, जबकि बल तप शरीर से होता है। अतः इनसे भी पुण्याआश्रव होता है, जिससे देवायु का बंध होता है। अतः जीवन में पुण्य के कार्य करते रहना चाहिए एवं पापों का त्यागने का भाव होना चाहिए ताकि जीवन में यह कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है।