बड़ा पाप/पुण्य

पाप से भी बड़ा पाप है – “पाप को स्वीकार ना करना” ।
स्वीकार करते ही वह प्रायश्चित बन जाता है, तप कहलाता है ।
अंजन चोर भी निरंजन बन जाता है ।

पुण्य से भी बड़ा पुण्य है – “अपने आप को पापी कहना” ।

मुनि श्री सुधासागर जी

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