भगवान का शरीर
1. अंतराय समाप्त सो अनंतवीर्य, इसलिये नामकर्म वर्गणायें लेने में लाभांतराय नहीं ।
2. शरीर परमौदारिक (शुक्लध्यान से 12 गुणस्थान में शरीर शुद्ध) सो…
कवलाहार की जरूरत नहीं ।
इनका माँस निगोदिया जीवों का पिंड़ नहीं ।
धातुयें नहीं बनतीं, सो नख-केश नहीं बढ़ते ।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
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नामकर्म का मतलब जिस कर्म के उदय से शरीर की रचना होती है। वर्गणाओं का मतलब वर्गों के समूह अथवा समान गुण वाले परमाणु पिंड को कहते हैं।
निगोद का मतलब जो अनन्त जीवों का एक निवास होता है। उपरोक्त परिभाषाओं से उपरोक्त कथन सत्य है कि मुनि महाराज ने जो भगवान के शरीर बाबत जानकारी दी गई है।