मरण
मरण तो बुरा कहा जाता है, फिर साधुओं की समाधि-मरण को अच्छा क्यों कहते हैं ?
मरण को अच्छा नहीं कहा, अच्छी तरह मरण (भगवान का नाम लेते हुये/शांति से/तीर्थस्थल या गुरु चरणों में) को अच्छा कहा है ।
जैसे क्रिकेट में आउट तो सभी होते हैं पर जो शतक बना कर आउट होता है उसके लिये सब खड़े होकर तालियां बजाते हैं ।
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मरण का मतलब प्राणों का वियोग होना होता है।जीव का मरण अनेक प्रकार से होता है। जीव के आयु आदि प्राणों का जो निरंतर क्षय होता रहता है।मरण के अनेक भेद भी होते हैं। जैन धर्म में कर्म सिद्धांत पर विश्वास रखना अनिवार्य है। उपरोक्त कथन सत्य है कि मरण को बुरा कहा जाता है लेकिन साधुओं के समाधि मरण को अच्छा कहा जाता है, क्योंकि मरण को अच्छा नहीं कहा लेकिन अच्छी तरह मरण में भगवान् का नाम लेते हुए, शान्ती से या तीर्थ स्थान या गुरु चरणों में अच्छा कहा गया है। अतः जो उदाहरण दिया गया है कि क़िकेट में आउट सभी होते हैं लेकिन शतक मारकर आऊट होने पर सभी लोग तालियां बजाकर खुश होते हैं। अतः जीवन में अच्छे कार्य कर जाते हैं वह हमेशा याद रहते हैं। अतः जीवन में श्रावकों को भी समाधि लेने के लिए किसी गुरुओं के समक्ष लेना आवश्यक है, क्योंकि इसमें भगवान् को याद करके शान्ती पूर्वक मरण होता है, इससे अच्छी गति मिलने की संभावना रहती है।