इसमें 8 प्रतिमाओं की व्यवस्था भी होती है ।
4 नीचे, दर्शनार्थ/मंदिर रूप ।
ऊपर की 4 मान समाप्त करने ।
मुनि श्री सुधासागर जी
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मान- -दूसरों के प्रति नमने की वृत्ति न होना मान है, अथवा दूसरों के प्रति तिरस्कार रुप भाव होना मान कहलाता है।मान का अर्थ तौल या माप भी है।
मानस्तभ्म- – तीर्थकरौं के समवशरण में प्रवेश करने के पहले प़त्यैक दिशा में जो तीर्थंकर के शरीर की ऊंचाई से बारह गुनी ऊंची स्तम्भ के आकार की सुंदर रचना होती है उसे कहते हैं। चूंकि दूर से ही इसके दर्शन मात्र से मिथ्या द्वष्टि जीव अभिमान से रहित हो जातें हैं अतः इसका मानस्तम नाम सार्थक है, सभी मानिस्तम्भ मूल में बज़द्वारों से युक्त होते हैं। माध्यम भाग में वृताकार होते हैं और ऊपर चारों दिशाओं में चमर,घंटा आदि से विभूषित एक एक जिन प़तिमा से युक्त होते है।अकृतिम चैत्यालयों में भी इसी तरह की रचना होती है। अतः यह कथन सत्य है कि इसमें 8 प़तिमाऔ की व्यवस्था भी होती है चार नीचे दर्शनार्थ और मन्दिर रुप है और ऊपर की चार मान समाप्त करने के लिए होती हैं।
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मान- -दूसरों के प्रति नमने की वृत्ति न होना मान है, अथवा दूसरों के प्रति तिरस्कार रुप भाव होना मान कहलाता है।मान का अर्थ तौल या माप भी है।
मानस्तभ्म- – तीर्थकरौं के समवशरण में प्रवेश करने के पहले प़त्यैक दिशा में जो तीर्थंकर के शरीर की ऊंचाई से बारह गुनी ऊंची स्तम्भ के आकार की सुंदर रचना होती है उसे कहते हैं। चूंकि दूर से ही इसके दर्शन मात्र से मिथ्या द्वष्टि जीव अभिमान से रहित हो जातें हैं अतः इसका मानस्तम नाम सार्थक है, सभी मानिस्तम्भ मूल में बज़द्वारों से युक्त होते हैं। माध्यम भाग में वृताकार होते हैं और ऊपर चारों दिशाओं में चमर,घंटा आदि से विभूषित एक एक जिन प़तिमा से युक्त होते है।अकृतिम चैत्यालयों में भी इसी तरह की रचना होती है। अतः यह कथन सत्य है कि इसमें 8 प़तिमाऔ की व्यवस्था भी होती है चार नीचे दर्शनार्थ और मन्दिर रुप है और ऊपर की चार मान समाप्त करने के लिए होती हैं।