मोह

मोह…
पदार्थों का अयथार्थ ग्रहण करना ।
दूसरों के परिणमण को अपना परिणमण मानना ।
दूसरों में एकत्व बुद्धि होना ।
कर्तव्य करते हुये अंतरंग में मिथ्या-बुद्धि नहीं होना चाहिये ।
मोह के दो भेद – 1. दर्शनमोह… मिथ्या-बुद्धि पैदा करता है (3 गुणस्थान तक)
2. चारित्रमोह… इष्ट अनिष्ट के भाव जैसे भरत चक्रवर्ती के हुए थे ।

मुनि श्री प्रणम्यसागर जी

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4 Responses

  1. मोहनीय कर्म का मतलब जिस कर्म के उदय से जीव हित अहित के विवेक रहित होता है। ये दो प्रकार के होते हैं दर्शनमोहनीय और चारित्र मोहनीय। सामान्यतः सम्यग्दर्शन का घात करने वाले को मोह कहा गया है तथा चारित्र की बात करने वाले को रागद्वेष की संज्ञा दी गई है। अतः इन दोनों के उदय में जीव की मिथ्यादृष्टि और रागी द्वेषी कहलाता है। अतः मुनि श्री प़माण सागर महाराज जी ने जो उदाहरण दिया है वह पूर्ण सत्य है।

  2. “दूसरों में एकत्व बुद्धि होना” aur “इष्ट अनिष्ट के भाव” ka kya meaning hai,please?

    1. 1) “दूसरों में एकत्व बुद्धि” = “दो शरीर एक आत्मा” वाला dialogue सुना है न !
      2) “इष्ट अनिष्ट” = भरत को चक्रवर्ती पद इष्ट था, बाहुबली अनिष्टकारी ।

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