रत्नत्रय तथा शुद्धोपयोग आत्मा के स्वभाव नहीं, विभाव हैं क्योंकि ये भी छूट जाते हैं ।
मुनि श्री सुधासागर जी
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रत्नत्रय का मतलब सम्यग्दर्शन,सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र है,इन तीन गुणों को कहते हैं।
शुद्वोपयोग का मतलब रागदि विकल्पों रहित आत्मा की निश्चल दशा ही होती है। निश्चय रत्नत्रय से युक्त वीतरागी श्रमण को कहते हैं। विभाव का मतलब स्वभाव से विपरीत परिणमन करना होता है। कर्म के उदय से होने वाले जीव के रागादि भावों को विभाव कहा गया है। अतः उक्त कथन सत्य है कि रत्नत्रय तथा शुद्वोपयोग आत्मा के स्वभाव नहीं,यह विभाव है क्योंकि ये भी छूट जाते हैं।
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रत्नत्रय का मतलब सम्यग्दर्शन,सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र है,इन तीन गुणों को कहते हैं।
शुद्वोपयोग का मतलब रागदि विकल्पों रहित आत्मा की निश्चल दशा ही होती है। निश्चय रत्नत्रय से युक्त वीतरागी श्रमण को कहते हैं। विभाव का मतलब स्वभाव से विपरीत परिणमन करना होता है। कर्म के उदय से होने वाले जीव के रागादि भावों को विभाव कहा गया है। अतः उक्त कथन सत्य है कि रत्नत्रय तथा शुद्वोपयोग आत्मा के स्वभाव नहीं,यह विभाव है क्योंकि ये भी छूट जाते हैं।