लेश्या काल

जघन्य काल -> शुभ/ अशुभ -> अंतर्मुहूर्त।
उत्कृष्ट काल –> अशुभ -> कृष्ण -> 33 सागर, नील -> 17, कापोत -> 7 सागर (2 अंतर्मुहूर्त अधिक –> मरण के समय पूर्व पर्याय में 1 अंतर्मुहूर्त वही लेश्या + जहाँ जाते हैं वहाँ से पुन: आते हैं तो 1 और अंतर्मुहूर्त वही लेश्या रहती है)।
शुभ –> तेजो -> 2, पद्म -> 18, शुक्ल -> 33 सागर (घातायुष्क के लिये तेजो/ पद्म में कुछ अधिक –> 12 स्वर्ग तक – सम्यग्दृष्टि के 1/2 सागर, मिथ्यादृष्टि के पल्य का असंख्यातवाँ भाग)

मुनि श्री प्रणम्यसागर जी (जीवकाण्ड- गाथा: 552)

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5 Responses

  1. मुनि श्री प़णम्यसागर महाराज जी ने लेश्या को परिभाषित किया गया है वह पूर्ण सत्य है। अतः अशुभ लेश्याओं से शुभ लेश्याओं का पालन करना परम आवश्यक है।

  2. ‘घातायुष्क के लिये तेजो/ पद्म में कुछ अधिक –> 12 स्वर्ग तक’ ka kya meaning hai, please ?

    1. ऊपर के स्वर्गों की आयुबंध करके भाव खराब होने पर निचले स्वर्गों में आयु 1/2 सागरादि अधिक मिलती है।

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