आत्मा अमूर्तिक/शुद्ध।
शरीर और उसकी क्रियायें मूर्तिक/अशुद्ध।
इनमें सम्बंध कर्म के माध्यम से,
कर्म ही शरीर के योग्य वर्गणाओं को खींचता है, शरीर बनाता है, उसमें वास करता है, आत्मा को शरीर में निवास कराता है।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
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One Response
आत्मा का तात्पर्य जो यथासंभव ज्ञान दर्शन सुख आदि गुणों में वर्तता या परिणमन करता है।
शरीर का मतलब अनन्तानत पुद्वगलों के समभाव का नाम है।
कर्म का तात्पर्य जीव मन वचन काय के द्वारा प़तिक्षण कुछ न कुछ करता है,यह क़िया या कर्म है।
अतः उपरोक्त कथन सत्य है कि आत्मा अमूर्तिक एवं शुद्ध है, जबकि शरीर और उसकी क़ियायें मूर्तिक एवं अशुद्ध हैं। इसमें सम्बन्ध कर्म के माध्यम से होता है।कर्म ही शरीर के योग्य वर्गणाओं को खींचता है,शरीर बनाता है, उसमें वास करता है , आत्मा को शरीर में निवास कराता है।
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आत्मा का तात्पर्य जो यथासंभव ज्ञान दर्शन सुख आदि गुणों में वर्तता या परिणमन करता है।
शरीर का मतलब अनन्तानत पुद्वगलों के समभाव का नाम है।
कर्म का तात्पर्य जीव मन वचन काय के द्वारा प़तिक्षण कुछ न कुछ करता है,यह क़िया या कर्म है।
अतः उपरोक्त कथन सत्य है कि आत्मा अमूर्तिक एवं शुद्ध है, जबकि शरीर और उसकी क़ियायें मूर्तिक एवं अशुद्ध हैं। इसमें सम्बन्ध कर्म के माध्यम से होता है।कर्म ही शरीर के योग्य वर्गणाओं को खींचता है,शरीर बनाता है, उसमें वास करता है , आत्मा को शरीर में निवास कराता है।