संवर
संवर तो पहले गुणस्थान में भी है जब जीव सम्यग्दर्शन के सम्मुख खड़ा हो । दूसरे में 25 प्रकृतियों का संवर है, पर ये असंख्यात गुणी निर्जरा के कारण नहीं ।
कारगर संवर तो बंध-विच्छुत्ति पूर्वक होता है।
प्रशंसनीय संवर पंचम गुणस्थान से, जिन गुणस्थानों में जिन प्रकृतियों का बंध हो सकता है, उनका संवर निर्जरा का कारण है।
मुनि श्री सुधासागर जी
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संवर का तात्पर्य आस्रव का निरोध करना कहलाता है, अथवा जिससे कर्म रुकें या कर्मों को रोकना संवर है।यह दोनों प़कार के होते हैं,भाव एवं द़व्य संवर। अतः आत्मा के दो सम्यग्दर्शन व व़त संयम आदि रुप रोकने का कारण भाव संवर एवं कर्मों का रोकना द़व्य संवर होता है। अतः मुनि महाराज ने उदाहरण दिया गया है वह पूर्ण सत्य है।
Can meaning of ” जिन गुणस्थानों में जिन प्रकृतियों का बंध हो सकता है, उनका संवर निर्जरा का कारण है ” be explained, please ?
जिन गुणस्थानों में जिन प्रकृतियों का बंध सम्भव है, वहीं तो उन प्रकृतियों का संवर/ निर्जरा, सम्भव/ effective/ useful रहेगी!
Okay.