आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज का सर्वोत्तम विचार…
“दर्पण में मुख और संसार में सुख, होता नहीं है,
बस दिखता है”
( ब्र. निलेश भैया )
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संसरण या आवागमन को संसार कहते हैं, जिसका अर्थ परिभ़मण या परिवर्तन है।कर्म के फलस्वरुप द़व्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव पंच परिवर्तन रुप संसार है।चार गतियों में भ़मण होता रहता है।। सुख—यह दो प़कार का होता है, इन्द़िय सुख और अतीन्द़िय सुख।इन्द़िय-सुख में प़ीति का अनुभव होना होता है।आत्म स्वरुप के अनुभव से उत्पन्न और रागादि विकल्पों से रहित निराकुलता, अतीन्द़िय सुख होता है।
महाराज का उत्तम विचार है कि दर्पण में मुख और संसार में सुख होता नही है बल्कि दिखता है।
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संसरण या आवागमन को संसार कहते हैं, जिसका अर्थ परिभ़मण या परिवर्तन है।कर्म के फलस्वरुप द़व्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव पंच परिवर्तन रुप संसार है।चार गतियों में भ़मण होता रहता है।। सुख—यह दो प़कार का होता है, इन्द़िय सुख और अतीन्द़िय सुख।इन्द़िय-सुख में प़ीति का अनुभव होना होता है।आत्म स्वरुप के अनुभव से उत्पन्न और रागादि विकल्पों से रहित निराकुलता, अतीन्द़िय सुख होता है।
महाराज का उत्तम विचार है कि दर्पण में मुख और संसार में सुख होता नही है बल्कि दिखता है।