कर्म का तीव्र उदय आने पर उसका बुद्धिपूर्वक त्याग कर देना चाहिये,
अंतराय मंद पड़ने लगता है।
इसे कहते हैं – “कर्म फल सन्यास”
इसे नियम या यम रूप में ले सकते हैं।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
Share this on...
4 Responses
अंतराय का तात्पर्य त्यागी व़ती और साधुओं के आहार में नख,कैश, चींटी आदि के कारण बाधा उत्पन्न हो जाना है। अतः मुनि महाराज जी का कथन सत्य है कि कर्म का तीव्र उदय आने पर उसे बुद्धी पूर्वक त्याग करना चाहिए,इससे अन्तराय मंद पड़ने लगता है। अतः इसे नियम या यम रुप में ले सकते हैं।
1) नहीं,
2) तीव्र पापोदय आने पर जैसे डायबीटीस होने पर मीठे का त्याग।
मीठा मिल क्यों रहा था !
पुर्ण्योदय,
पर खा तो पा ही नहीं रहे हो, तो इस पुण्य के फल का त्याग क्यों न कर दिया जाए ताकि पुण्य अर्जन भी हो।
4 Responses
अंतराय का तात्पर्य त्यागी व़ती और साधुओं के आहार में नख,कैश, चींटी आदि के कारण बाधा उत्पन्न हो जाना है। अतः मुनि महाराज जी का कथन सत्य है कि कर्म का तीव्र उदय आने पर उसे बुद्धी पूर्वक त्याग करना चाहिए,इससे अन्तराय मंद पड़ने लगता है। अतः इसे नियम या यम रुप में ले सकते हैं।
1) Yahan par ‘Antraay karm ke phal’ ki tyag ki baat ho rahi hai, na ?
2) Yeh kaise sambhav hai ?
1) नहीं,
2) तीव्र पापोदय आने पर जैसे डायबीटीस होने पर मीठे का त्याग।
मीठा मिल क्यों रहा था !
पुर्ण्योदय,
पर खा तो पा ही नहीं रहे हो, तो इस पुण्य के फल का त्याग क्यों न कर दिया जाए ताकि पुण्य अर्जन भी हो।
Okay.