ईर्यापथ आश्रव
ईर्या = गमन = आना जाना कर्मों का (आत्म प्रदेशों से) क्योंकि आत्मा में चिकनापन (कषाय) नहीं है।
पथ = रास्ता, पर शुभ-कर्मों और नोकर्मों का ही।
साम्परायिक आश्रव ≡ कर्म आये, बैठे, तब गये, चिपकन ज्यादा इसलिये ज्यादा देर तक रुकते हैं।
पाप ≡ जमीन पर/ जमीन से नीचे,
पुण्य ≡ आसमान में 5000 धनुष ऊपर;
इसीलिये कहते हैं कि पाप और पुण्य में जमीन आसमान का फ़र्क होता है।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
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ईर्यापथ आश्रव का तात्पर्य उपशान्त कषाय, क्षीण कषाय और सयोग केवल भगवान के कषाय अभाव हो जाने से मात्र योग के द्वारा आए हुए कर्म सूखी दीवर पर पडी धूल के समान तुरंत उड़ जाते हैं और बंधते नहीं है। अतः उपरोक्त उदाहरण दिया गया है वह पूर्ण सत्य है। अतः जीवन में कर्मों के आश्रव के लिए, भगवान् के दिए गए उपदेशों को आत्मसात करना परम आवश्यक है ताकि जीवन का कल्याण हो सकता है।