उत्तम आकिंचन्य
अब कुछ करना नहीं,
अब तो भावना और उपाय/साधना के फल आने शुरु हो गये, भरेपन का भाव आने लगा है।
सहारे की भावना बुरी है, सहारा देना और लेना बुरा नहीं।
असली परीक्षा तो अभाव में ही होती है।
एक साधू को राजा ने अपने महल में सुलाया, सुबह पूछा-नींद कैसी आयी ?
साधू- कुछ तेरी जैसी, कुछ तेरी से अच्छी (आरामदायक, पर आदत नहीं डाली)
मुनि श्री क्षमासागर जी
न मेरा, न तेरा, जग इक रैन बसेरा।
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आकिंचन्य धर्म का तात्पर्य समस्त परिग़ह का त्याग करना अब कुछ भी नहीं है,इस प्रकार का निर्लोप भाव होना ही धर्म है।जिस प़कार त्याग धर्म में आम के पेड़ के फल पक जाने पर झड़ जाते हैं। अतः मुनि क्षमासागर महाराज जी का कथन सत्य है कि अब कुछ करना नहीं है। असली परीक्षा तो अभाव में होती है। इसमें साधु आराम नहीं करते हैं। साधु अपनी आत्मा में रह कर साधना करते हैं। यही मोक्ष मार्ग का साधन होता है।