चरणानुयोग के अनुसार – देवदर्शन से निद्धत्ति/निकाचित-पना समाप्त हो जाता है ।
सिद्धांतग्रंथों के अनुसार, इन्हें भोगना ही पड़ता है (जैसे सीता/अंजना जी ने को भोगना पड़ा) ।
मुनि श्री सुधासागर जी
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चराणानुयोग- -जिसमें मुख्य रूप से गृहस्थ और मुनियों के व़त नियम और संयम का वर्णन किया गया है। इस अनुयोग की कथन पद्वति का प्रयोजन यह है कि जीव पाप कार्य को छोड़कर व़त नियम रुप धर्म कार्य में लगे,कषाय को मन्द कर और क़मशः वीतराग भाव को प्राप्त हो सके। निकाचित- -जीव के द्वारा बांधे गए कर्म का अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमण संभव नहीं है यह निकाचित कर्म कहलाता है।
अतः उक्त कथन सत्य है कि चरणायोग के अनुसार देव दर्शन से निद्धत्ति और निकाचित पना समाप्त हो जाता है। लेकिन सिद्धांत ग़न्थौं के अनुसार भोगना ही पड़ता है जैसे सीता जी और अंजना को जीवन में भुगतना पड़ा था।
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चराणानुयोग- -जिसमें मुख्य रूप से गृहस्थ और मुनियों के व़त नियम और संयम का वर्णन किया गया है। इस अनुयोग की कथन पद्वति का प्रयोजन यह है कि जीव पाप कार्य को छोड़कर व़त नियम रुप धर्म कार्य में लगे,कषाय को मन्द कर और क़मशः वीतराग भाव को प्राप्त हो सके। निकाचित- -जीव के द्वारा बांधे गए कर्म का अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमण संभव नहीं है यह निकाचित कर्म कहलाता है।
अतः उक्त कथन सत्य है कि चरणायोग के अनुसार देव दर्शन से निद्धत्ति और निकाचित पना समाप्त हो जाता है। लेकिन सिद्धांत ग़न्थौं के अनुसार भोगना ही पड़ता है जैसे सीता जी और अंजना को जीवन में भुगतना पड़ा था।