परीक्षा-प्रधान
आचार्य समन्तभद्र जी ने आत्म-मीमांसा ग्रंथ में ना तो मंगलाचरण किया ना ही भगवान को नमस्कार करके ग्रंथ का प्रारंभ किया ।
सीधे भगवान, आत्मा की परीक्षा की बात की है – “मैं आपके चमत्कारों से प्रभावित होकर नहीं आया हूँ, ये तो जादूगर भी कर सकता है।
जिनमें तीन लक्षण हों, वह भगवान – वीतरागी, सर्वज्ञ, हितोपदेशी।”
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
One Response
उपरोक्त कथन सत्य है कि अपनी आत्मा को ही पुरुषार्थ करके ही भगवान बन सकते हैं। अतः जीवन में वही भगवान् होते हैं जो वीतरागी,सर्वज्ञ और हितोपदेशी है। अतः जीवन में अपनी आत्मा में भगवान, गुरु, जिनवाणी पर श्रद्वान करना चाहिए ताकि जीवन का कल्याण हो सकता है। अतः जीवन में श्रद्धा के साथ समपर्ण भाव भी होना चाहिए।