3 प्रकार से –
1. उन गुरु से, जिनसे नियम लिया हो ।
2. उन गुरु की समाधि की अवस्था में,
उस परम्परा और आचार-विचार वाले गुरु से ।
3. छोटी छोटी ग़लतियों के लिये,
भगवान के सामने अपनी आलोचना करके ।
मुनि श्री सुधासागर जी
Share this on...
One Response
प्रायश्चित- -प़माद जन्य दोषों का परिहार करना प़ायश्चित नाम का तप है। व़तों के दोष लगने पर साधु अपने दोषों को निराकरण करने के लिए उपवास आदि अनुष्ठान करते हैं वह कहलाता है यह साधु का मूल गुण होता है। श्रावकों को भी जो नियम लेते हैं उसके निराकरण करने के लिए भी प्रायश्चित करना पड़ता है। अतः उक्त कथन सत्य है कि श्रावकों के लिए प्रायश्चित करने के लिए तीन प्रकार बताए गए हैं। इसमें 1जिस गुरु से नियम लिया है उनसे लें 2 उन गुरु की समाधि होने पर उस परम्परा के आचार विचार वाले गुरु से ले सकते हैं 3 छोटी छोटी गलतियों के लिये भगवान के सामने अपनी आलोचना करना आवश्यक है।
One Response
प्रायश्चित- -प़माद जन्य दोषों का परिहार करना प़ायश्चित नाम का तप है। व़तों के दोष लगने पर साधु अपने दोषों को निराकरण करने के लिए उपवास आदि अनुष्ठान करते हैं वह कहलाता है यह साधु का मूल गुण होता है। श्रावकों को भी जो नियम लेते हैं उसके निराकरण करने के लिए भी प्रायश्चित करना पड़ता है। अतः उक्त कथन सत्य है कि श्रावकों के लिए प्रायश्चित करने के लिए तीन प्रकार बताए गए हैं। इसमें 1जिस गुरु से नियम लिया है उनसे लें 2 उन गुरु की समाधि होने पर उस परम्परा के आचार विचार वाले गुरु से ले सकते हैं 3 छोटी छोटी गलतियों के लिये भगवान के सामने अपनी आलोचना करना आवश्यक है।