मन
नोइंद्रिय/ अंगोपांग नामकर्म के उदय से मन बनता है।
हृदय स्थल पर होने के कारण ही मन को हृदय और हृदय को मन कहने लगते हैं जैसे घड़े में यदि घी हो तो उसे घी का घड़ा कहा जाता है।
मन को अंतःकरण भी कहते हैं यानी अंदर की इन्द्रिय।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी (जीवकाण्ड: गाथा– 444)
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मुनि श्री प़णम्यसागर महाराज जी ने मन की परिभाषा बताई गई है वह पूर्ण सत्य है। अतः जीवन में कल्याण के लिए मन को नियंत्रित करना परम आवश्यक है।