विस्रसोपचय

विस्र = स्वभाव से उपचित(चिपकने वाले); कर्म/ नोकर्म से निरपेक्ष, कर्म/ नोकर्म परमाणुओं पर स्थित। ये रूक्ष या स्निग्ध होते हैं, इसीलिये चिपके रहते हैं। प्रदेश बंध में बाहर से खींचकर नहीं लाये जाते हैं। इन्हें ही Naturally attendant atoms कहते हैं। जीव राशि (संसारी + मुक्त) से अनन्त गुणे प्रत्येक परमाणु पर स्थित रहते हैं। राग द्वेष करने पर यही कर्म/ नोकर्म रूप बन, आत्मा से चिपक जाते हैं। जैसे लोई पर चिपका आटा या कोरोना का Virus, वही चिपकेगा जो हमारे पास होगा।
इसीलिये कहा है… स्वच्छ स्थान/ संगति में बैठो ताकि स्वच्छता ही चिपके।

मुनि श्री प्रणम्यसागर जी (जीवकाण्ड: गाथा- 249)

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One Response

  1. मुनि श्री प़णम्यसागर महाराज जी ने विस्त्रसोपचय को परिभाषित किया गया है वह पूर्ण सत्य है।

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