व्रत / शील
वैसे व्रत पहले होते हैं, शील बाद में पर कहने में “शील व्रत” कहा जाता है।
व्रत और शील अलग-अलग भी लिये जाते हैं (सिर्फ अणुव्रत पहले भी)।
“शील” अणुव्रतों की रक्षा/ शक्ति बढ़ाने के लिये। बाह्य रक्षा गमनागमन को सीमित करके, अंतरंग भावनाओं से।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी (तीत्थ.भा.- गाथा 22)
One Response
मुनि श्री प़णम्यसागर महाराज जी ने व़त एवं शील का उदाहरण दिया गया है वह पूर्ण सत्य है। अतः जीवन के कल्याण के लिए व़त के साथ शील रखना परम आवश्यक है ताकि अणुव़तो की रक्षा एवं शक्ति बढ सकती है।