समता-भाव
भविष्य के कुछ तीर्थंकर आज नरक में हैं ।
कुछ हमारे साथ भी हो सकते हैं ।
हम उन्हें पूज रहे हैं/रोज अर्घ चढ़ाते हैं ।
साथ वालों के साथ दुर्व्यवहार कर रहे हों/उन्हें नीचा मान रहे हों ।
क्या यह वांछनीय है !!
आर्यिका श्री स्वस्तिभूषण माताजी
भविष्य के कुछ तीर्थंकर आज नरक में हैं ।
कुछ हमारे साथ भी हो सकते हैं ।
हम उन्हें पूज रहे हैं/रोज अर्घ चढ़ाते हैं ।
साथ वालों के साथ दुर्व्यवहार कर रहे हों/उन्हें नीचा मान रहे हों ।
क्या यह वांछनीय है !!
आर्यिका श्री स्वस्तिभूषण माताजी
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One Response
जैन धर्म में भावना का ही महत्वपूर्ण भूमिका है।समता का मतलब शत्रु मित्र, सुख दुःख,लाभ अलाभ और जय पराजय में हर्ष विषाद नहीं करना या साम्य रखना ही समता भाव है।
अतः यह कथन सत्य है कि साथ वालों के साथ दुर्व्यवहार करते हैं या नीचा मान रहे हैं वह वांछनीय नहीं है क्योंकि वह समता भाव नहीं है। जीवन में समता भाव रखता है वही अपना उद्धार कर सकता हैं।