कर्म सम्यग्दृष्टि के “हो जाते हैं”,
मिथ्यादृष्टि “करते हैं” ।
मुनि श्री सुधासागर जी
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कर्म का मतलब जीव मन वचन काय के द्वारा प़तिक्षण कुछ न कुछ करता है उसे क़िया या कर्म है। सम्यग्द्वष्टि का तात्पर्य जो सम्यग्दर्शन यानी जो सच्चे देव शास्त्र गुरु पर श्रद्वान करता है। इसके विपरीत मिथ्याद्वष्टि होता है, तो दोष युक्त देव को,हिंसा से युक्त और परिग़ह से लिप्त गुरु को मानता है।
अतः उपरोक्त उदाहरण सत्य है कि कर्म सम्यग्द्वष्टि के भी हो जाते हैं, मिथ्याद्वष्टि कर्म करते हैं।
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कर्म का मतलब जीव मन वचन काय के द्वारा प़तिक्षण कुछ न कुछ करता है उसे क़िया या कर्म है। सम्यग्द्वष्टि का तात्पर्य जो सम्यग्दर्शन यानी जो सच्चे देव शास्त्र गुरु पर श्रद्वान करता है। इसके विपरीत मिथ्याद्वष्टि होता है, तो दोष युक्त देव को,हिंसा से युक्त और परिग़ह से लिप्त गुरु को मानता है।
अतः उपरोक्त उदाहरण सत्य है कि कर्म सम्यग्द्वष्टि के भी हो जाते हैं, मिथ्याद्वष्टि कर्म करते हैं।