गुरु
भावलिंगी साधु खुद बनते हैं, गुरु को शिष्य बनाता है ।
मानव खुद बनते हैं, पिता को बेटा बनाता है ।
अरिहंत खुद बनते हैं, तीर्थंकर को लोक कल्याणी भाव बनाते हैं।
अरिहंत को सिद्धालय तो मिलेगा, मंदिर तीर्थंकर को ही ।
गुरु/तीर्थंकर अपनी कमाई में से शिष्य/सब जीवों को देते हैं, तब शिष्य के मन में “गुरु”/ सब जीवों के मन में “भगवान” के भाव आते हैं।
आचार्य समंतभद्र स्वामी ने “गुरु” शब्द की जगह “तपस्वी” कहा ।
किसी भी आचार्य ने अपने को “गुरु”/ “आचार्य” नहीं कहा, द्रव्यसंग्रह जी में “नेमीचंद मुनिनाथ” कहा है ।
मुनि श्री सुधासागर जी
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उपरोक्त कथन सत्य है कि भावलिंगी साधु खुद बनते हैं, गुरु को शिष्य बनाता है इसी प्रकार मानव बनते हैं, जैसे पिता को बेटा बनाता है। अतः अरहंत खुद बनते हैं, तीर्थंकर को लोक कल्याणी भाव बनाते हैं, इसलिए अरहंत को सिद्धालय तो मिलेगा जबकि मंदिर तीर्थंकरों को ही मिलता है। गुरु एवं तीर्थंकर अपनी कमाई से शिष्य एवं सब जीवों को देते हैं तभी सभी जीवों के मन में भगवान के भाव आते हैं। अतः आचार्य समंतभद्र स्वामी ने गुरु शब्द की जगह तपस्वी कहा था। किसी भी आचार्य ने अपने को गुरु एवं आचार्य नहीं कहा है।