परीषह-जय
छोटे-छोटे संघ बना-बना कर सब पुराने मुनियों को आचार्य श्री विद्यासागर जी अलग-अलग जगहों पर भेज रहे थे। उन्होंने अपने पास चार नवदीक्षित मुनि ही रखे थे।
मुनि श्री विनम्रसागर ने आचार्यश्री से निवेदन किया – “मैं आपके रोगादि को जानता हूँ। कृपया मुझे अपने पास रहने की आज्ञा दे दीजिए!”
आचार्यश्री – “तुम सब लोग देखभाल करते रहोगे, तो मैं परीषह-जय कैसे कर पाऊंगा?”
मुनि श्री विनम्रसागर जी
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मुनि श्री विनम़सागर महाराज जी ने परिषह जय की परिभाषा दी गई है वह पूर्ण सत्य है! आचार्यों का कार्य है कि अपने साथ कम साधुओं को रखते हैं आचार्य से अध्ययन करके अलग संघ बनाकर भेजते हैं, ताकि हर जगह श्रावकों को उनके वचनों का लाभ मिलता है, जिससे श्रावकों का कल्याण हो सकता है!