माया शल्य एवं माया कषाय

शल्य – पीड़ा देने वाली वस्तु को कहते हैं ।
काँटें जैसी चुभती रहती है,
कषाय – हर समय नहीं रहती ।
व्रती के माया कषाय तो हो सकती है, पर वह प्रायश्चित करके, उसकी निरंतरता को समाप्त कर लेता है ।

इसीलिये व्रती शल्य रहित होता है ।
सम्यग्दृष्टि शल्य रहित हो ही, ऐसा नियम नहीं है ।

पं श्री मुख्तार जी

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