स्वाध्याय को परम-तप, ज्ञान या पढ़ने की अपेक्षा से नहीं कहा,
बल्कि उसको आचरण में उतारने से वह परम-तप बनता है ।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
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स्वाध्याय—आत्महित की भावना से सत-शास्त्र का वाचन करना,मनन करना या उपदेश आदि देना स्वाध्याय है। अथवा आलस छोड़कर ज्ञान की आराधना में तत्पर रहना स्वाध्याय नाम का तप है। इसके पांच भेद है वाचना,पृछना,अनुप्रेक्षा,आम्नाय और धर्मोपदेश।
अतः यह कथन सत्य है कि स्वाध्याय को परम-तप, ज्ञान या पढ़ने की अपेक्षा से नहीं कहा गया है बल्कि उसको आचरण में उतारने से परम-तप बनता है।
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स्वाध्याय—आत्महित की भावना से सत-शास्त्र का वाचन करना,मनन करना या उपदेश आदि देना स्वाध्याय है। अथवा आलस छोड़कर ज्ञान की आराधना में तत्पर रहना स्वाध्याय नाम का तप है। इसके पांच भेद है वाचना,पृछना,अनुप्रेक्षा,आम्नाय और धर्मोपदेश।
अतः यह कथन सत्य है कि स्वाध्याय को परम-तप, ज्ञान या पढ़ने की अपेक्षा से नहीं कहा गया है बल्कि उसको आचरण में उतारने से परम-तप बनता है।