अरहंत / मन

संसारी के वचन, मन पूर्वक ही।
ऐसा मन सयोगी के नहीं, उनके मन उपचार से कहा क्योंकि वचन की प्रवृत्ति हो रही है।
उपचार → निमित्त और प्रयोजन को ध्यान में रख कर कहा जाय।
निमित्त → सयोग केवली के मन का सद्‌भाव दिखाना।
प्रयोजन → द्रव्य मन को बनाये रखने को आत्मा मनोवर्गणाओं को ग्रहण करता रहता है, यही मनोयोग कहलाता है।

मुनि श्री प्रणम्यसागर जी (जीवकांड़ गाथा- 228)

Share this on...

One Response

  1. मुनि महाराज जी ने अरहंत और मन का उदाहरण दिया गया है वह पूर्ण सत्य है! अतः जीवन में संसारी के वचन मन पूर्वक होना चाहिए! जीवन में मन ही वचनों का उपचार है, अतः उपचार, निमित्त एवं प़योजन को समझने का प़यास होना चाहिए ताकि जीवन का कल्याण हो सकता है!

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This question is for testing whether you are a human visitor and to prevent automated spam submissions. *Captcha loading...

Archives

Archives
Recent Comments

April 26, 2023

November 2024
M T W T F S S
 123
45678910
11121314151617
18192021222324
252627282930