अर्हद्भक्ति यानि अरहंत-भक्ति।
स्तुतियाँ करना/रचना करना, अर्हद्भक्ति है।
रत्नकरंड श्रावकाचार आदि कुछ ग्रंथों को छोड़ कर बाकी सब भक्ति-परक ग्रंथों की ही रचना की है, आचार्यों ने।
भक्ति को राग कहना जिनशासन की अवहेलना है।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
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अर्हद भक्ति का तात्पर्य अहॅन्त के प़ति जो गुणानुराग रुप भक्ति होती है, अथवा अहॅन्त भगवान् के द्वारा कहे गए धर्म के अनुरूप आचरण करना होता है,यह सोलहकारण भावना में एक भावना है। उपरोक्त उदाहरण मुनि श्री ने बताया गया है वह पूर्ण सत्य है। उपरोक्त कथन भी सत्य है कि भक्ति को राग कहना जिनशासन की अवहेलना है। अतः जीवन में श्रद्धा करते हुए एवं विशुद्वी होकर भक्ति करना आवश्यक है ताकि जीवन का कल्याण हो सकता है।
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अर्हद भक्ति का तात्पर्य अहॅन्त के प़ति जो गुणानुराग रुप भक्ति होती है, अथवा अहॅन्त भगवान् के द्वारा कहे गए धर्म के अनुरूप आचरण करना होता है,यह सोलहकारण भावना में एक भावना है। उपरोक्त उदाहरण मुनि श्री ने बताया गया है वह पूर्ण सत्य है। उपरोक्त कथन भी सत्य है कि भक्ति को राग कहना जिनशासन की अवहेलना है। अतः जीवन में श्रद्धा करते हुए एवं विशुद्वी होकर भक्ति करना आवश्यक है ताकि जीवन का कल्याण हो सकता है।