उत्तम आकिंचन धर्म

  • ग्रह उनको ही लगते हैं, जिन पर परिग्रह होती है ।
  • तन के अनुरूप ही मन का नग्न होना, आकिंचन है ।
  • तुम्बी तैरती,
    तैराती औरों को भी,
    सूखी या गीली ?
    सूखापन होना ही आकिंचन धर्म है ।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

    • आकिंचन का उल्टा – परिग्रह ।
      “परि” यानि चारों ओर, “ग्रह” यानि आपत्तियां ।
    • आ – आत्मा
      किंचन – कुछ या किंचित
      जिसका “कुछ” संसार हो और मुख्य आत्मा हो उसके आकिंचन धर्म होता है ।
    • परिग्रह और परिचय ये दोनों ही आकुलता के कारण हैं ।
      उस बाबाजी की लंग़ोटी की तरह जिसने एक लंगोटी रखने के लिये पूरी गृहस्थी बसा ली थी ।
      कागज के टुकड़े में एक हजार रूपये की शक्ति है, ऐसे ही लंगोटी में भी पूरी गृहस्थी बसाने की शक्ति है ।
    • परिग्रह यानि अपूर्ण/परतंत्र ।
      इसीलिये परिग्रह दु:ख का कारण है ।
    • संसार में अकेलापन दुखदायी लगता है, पर परमार्थ में अकेलापन सुखदायी है ।
    • ब्लड़ रिपोर्ट जब नार्मल होती है तब कहते हैं कि कुछ नहीं निकला और जब Defect होता है तब कहते हैं कि कुछ आया है,
      ये “कुछ” ही हमारे जीवन में Defect लाता है ।
    • हावड़ा ब्रिज देखने तमाम लोग जाते हैं क्योंकि वो बिना किसी सपोर्ट के है,
      ना लंगोट, ना सपोर्ट, ना वोट, ना खोट, उनके आकिंचन धर्म होता है, जिसे देखने देवता भी आते हैं ।
    • एक राजा जंगल में भटक गया, एक साधू की कुटिया में रुका, साधू को उसने रात भर आनंद में देखा, सुबह उसने पूछा – अकेले बिना किसी सपोर्ट के कैसे जीवन बिताते हो ?
      साधू ने कहा कि तुमने कैसे रात बितायी, तुम्हारे पास भी तो कोई सपोर्ट नहीं था ?
      राजा – मैं तो सोच रहा था कि एक दिन का मुसाफिर हूँ, काट लूंगा ।
      साधू – मैं भी यही सोचता हूँ की मैं भी एक ज़िंदगी का ही तो मुसाफिर हूँ, ऐसे ही निकाल लूंगा ।
      साधू बेघर होकर भी अपने घर में है, गृहस्थ घर वाला होकर भी बेघर रहता है ।

मुनि श्री कुन्थुसागर जी

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