कर्म-बंध
काय-योग से शरीर के योग्य वर्गणायें,
वचन-योग से वचन के योग्य वर्गणायें,
मन-योग से मन के योग्य वर्गणायें लगातार/automatically ग्रहण होती रहतीं हैं ।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
काय-योग से शरीर के योग्य वर्गणायें,
वचन-योग से वचन के योग्य वर्गणायें,
मन-योग से मन के योग्य वर्गणायें लगातार/automatically ग्रहण होती रहतीं हैं ।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
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कर्म का मतलब जीव मन वचन काय के द्वारा प़तिक्षण कुछ न कुछ करता है वह उसकी क़िया या कर्म है। कर्म के द्वारा जीव परतंत्र होता है और संसार में भटकता है इसमें द़व्य,भाव कर्म और नौ कर्म होते हैं इसके कारण कर्म बंध होते रहते हैं। जैन धर्म में कर्मबंध काय, वचन,मन के योग वर्गणाओं होती रहती हैं जो लगातार ग़हण होती रहती है।
अतः जैसे कर्म बंध होते हैं उसके परिणाम भव भव में भुगतना ही पड़ता है। जीवन में कुछ अपराध होते हैं उनकी सज़ा तो मिलती रहती हैं लेकिन कर्म बंध होने पर भव भव तक भुगतना पड़ता हैं।