ज़िंदगी
ज़िंदगी से बड़ी सज़ा ही नहीं, और क्या ज़ुर्म है पता ही नहीं।
इतने हिस्सों में बंट गया हूँ मैं, मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं।।
कृष्ण बिहारी नूर
ज़िंदगी सज़ा भी है, श्रंगार भी।
ज़ुर्म तो यही था कि जो ज़िंदगी तुमको आत्मोत्थान के लिये मिली थी/हीरा तराशने को मिला था, उसे तुमने टुकड़े-टुकड़े करके औरों को बांट दिया, अपने लिए कुछ बचाया ही नहीं।
चिंतन
One Response
उपरोक्त कथन सत्य है कि जिंदगी में सभी जीवों ने क्या पाया है, सिर्फ खटकर्म या बुराईयों आदि। लेकिन जीवन में आत्मोत्थान के लिए कुछ नहीं किया गया है। अतः आत्म हित के लिए धर्म से जुड़ना परम आवश्यक है ताकि जीवन का कल्याण हो सकता है।