दाम्पत्य-जीवन का दोष — मुनि/आर्यिका नहीं बन पाना ।
प्रायश्चित — संस्कारित संतान उत्पत्ति ।
मुनि श्री विनम्रसागर जी
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प़ायश्चित- – प़माद-जन दोषों के परिहार करना प़ायश्चित नाम का तप है। व़तो में दोष लगने पर साधु अपने दोषों के निवारण करने के लिए उपवास आदि अनुष्ठान करते हैं , वह प़ायश्चित कहलाता है। यह साधु का मूल गुण होता है।
अतः उक्त कथन सत्य है कि दाम्पत्य जीवन का दोष, मुनि और आर्यिका नहीं बन सकते हैं। उसके लिए संस्कारित संतान उत्पत्ति होना चाहिए ताकि मुनि और आर्यिका बन सकते हैं।
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प़ायश्चित- – प़माद-जन दोषों के परिहार करना प़ायश्चित नाम का तप है। व़तो में दोष लगने पर साधु अपने दोषों के निवारण करने के लिए उपवास आदि अनुष्ठान करते हैं , वह प़ायश्चित कहलाता है। यह साधु का मूल गुण होता है।
अतः उक्त कथन सत्य है कि दाम्पत्य जीवन का दोष, मुनि और आर्यिका नहीं बन सकते हैं। उसके लिए संस्कारित संतान उत्पत्ति होना चाहिए ताकि मुनि और आर्यिका बन सकते हैं।