प्रतिक्रमण = पूर्व के दोषों की स्वीकृति/ पश्चाताप,
आलोचना = वर्तमान के दोषों की;
प्रत्याख्यान = आगे दोष न करने का संकल्प ।
कुंद कुंद भारती
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प़त्येक मनुष्य दोषों और बुराइयों से भरे हुए रहते हैं लेकिन उनके निवारण हेतु जैन धर्म में इन तीन प्रकार के साधन बताये गये हैं। उपरोक्त कथन सत्य है कि प़तिकमण में पूर्व के दोषों की स्वीकृति और पश्चाताप आवश्यक है।आलोचना में वर्तमान के दोषों की समीक्षा करना आवश्यक है इसके अतिरिक्त प़त्याख्यान में आगे दोष न करने का संकल्प लेना आवश्यक है। दोषों के निवारण साधुओं के लिए परम आवश्यक है। जबकि श्रावकों को भी पालन करना आवश्यक है ताकि जीवन का कल्याण हो सकता है।
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प़त्येक मनुष्य दोषों और बुराइयों से भरे हुए रहते हैं लेकिन उनके निवारण हेतु जैन धर्म में इन तीन प्रकार के साधन बताये गये हैं। उपरोक्त कथन सत्य है कि प़तिकमण में पूर्व के दोषों की स्वीकृति और पश्चाताप आवश्यक है।आलोचना में वर्तमान के दोषों की समीक्षा करना आवश्यक है इसके अतिरिक्त प़त्याख्यान में आगे दोष न करने का संकल्प लेना आवश्यक है। दोषों के निवारण साधुओं के लिए परम आवश्यक है। जबकि श्रावकों को भी पालन करना आवश्यक है ताकि जीवन का कल्याण हो सकता है।