द्वैत….. दो का अलग-अलग अस्तित्व स्वीकारना जैसे आत्मा और शरीर ।
अद्वैत… दो का एक अस्तित्व मानना जैसे अपनी आत्मा और शरीर को एक मानना ।
अन्य मतों में… भगवान में एकमेव होना ।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
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उपरोक्त कथन में द्वैत और अद्वैत की परिभाषा सही है, लेकिन अन्य मतों में एकमेव होना यानी एकांत की भावना है लेकिन जैन धर्म अनेकांत सिद्धांत पर निर्भर होता है ।
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उपरोक्त कथन में द्वैत और अद्वैत की परिभाषा सही है, लेकिन अन्य मतों में एकमेव होना यानी एकांत की भावना है लेकिन जैन धर्म अनेकांत सिद्धांत पर निर्भर होता है ।