दो प्रकार का –
1. व्यवहार रूप – इन्द्रियों/शरीर से,उनकी सहायता से; लेकिन आत्मा के लिये ।
2. निश्चय रूप – ध्यान/स्वानुभव – 7वें गुणस्थान से ही, उससे पहले मात्र श्रद्धा/भावना/अभ्यास होता है ।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी (प्रवचनसार – गाथा 274)
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उपरोक्त कथन सत्य है कि धर्म या मोक्ष मार्ग के लिए निश्चय रुप और व्यवहार रुप दोनों परम आवश्यक है। अतः जो परिभाषा दी गई है वह पूर्ण सत्य है। निश्चय रुप अटल है लेकिन बिना व्यवहार रुप के धर्म और मोक्ष मार्ग पर चलना मुश्किल होता है। यही अनेकांत बताता है,जो जैन धर्म का मूल सिद्धांत है।
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उपरोक्त कथन सत्य है कि धर्म या मोक्ष मार्ग के लिए निश्चय रुप और व्यवहार रुप दोनों परम आवश्यक है। अतः जो परिभाषा दी गई है वह पूर्ण सत्य है। निश्चय रुप अटल है लेकिन बिना व्यवहार रुप के धर्म और मोक्ष मार्ग पर चलना मुश्किल होता है। यही अनेकांत बताता है,जो जैन धर्म का मूल सिद्धांत है।